कविता - यह क्या हो रहा है
धर्मालय के बाहर वृद्ध भिखारी

कटोरा लेकर घूम रहा है ,

बेखबर पुजारी भीतर मस्ती में

मूर्तियों संग झूम रहा है ।

जिंदा मूर्तियों को छांट- छांट के ही

प्रवेश दिया जा रहा है..

बेजुबान मूर्तियों को बड़ी श्रद्धा से 

यहां सहेजा जा रहा है । 

ऐसे में हृदय-विदारक सवाल 

ज़हन में उठ खड़ा हो रहा है 

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है? 

 

रोटी,कपड़ा और मकान

की चिंता छोड़ कर

विकास की परिभाषा बदल दी,

हमने अपने आंगन में क्यों

बेवजह की लकीर खींच दी ?

कौन समझाए कि धर्म से बढ़कर 

मानवता महान होती है

और भाषा भी किसी धर्म विशेष की जागीर नहीं होती है । 

अगर सब कुछ सही चल रहा तो 

मजदूर, किसान, असहाय और तथाकथित आम वर्ग क्यों रो रहा है ?

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है ?

 

किससे पूछें कि जगतजननी 

आज टूट-सी क्यों गई है ? 

महापुरुषों- महाबलियों की जन्मदात्री रूठ-सी क्यों गई है ? 

 बेख़ौफ़ अंजाम दे रहे हर चौराहे पर 

दरिंदों को कानून का खौ़फ क्यों नहीं ?

अनैतिकता की सख्त सज़ा बाहरी देशों में है 

तो फिर मेरे भारत में क्यों नहीं ? 

उन्नाव केस हो या हैदराबाद का मामला

हृदय छलनी-छलनी हो रहा है ? 

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है?

 

जो हक़ के लिए लड़ता है 

वह वर्ग क्यों पिछाड़ा जाता है ? 

सबका विकास चाहने वाला 

'गरीब का बच्चा' क्यों मारा जाता है?

रह-रहकर ज़हन में सवाल उठता है 

फिर कहीं खो जाता है,

देशद्रोही ना कहलवाऊं

सोचकर हर बुद्धिजीवी

चुप हो जाता है।

बदली-बदली सी सूरत में 

सामाजिक हर ताना-बाना हो रहा है,

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है??

 

 

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